माना-ए-दश्त-नवर्दी कोई तदबीर नहीं
माना-ए-दश्त-नवर्दी कोई तदबीर नहीं
एक चक्कर है मिरे पाँव में ज़ंजीर नहीं

@mirza-ghalib
Contemporary poet of sher, ghazal, and nazm — weaving emotion and rhythm into words loved across the Hindi–Urdu world. Contemporary poet of sher, ghazal, and nazm — weaving emotion and rhythm into words loved across the Hindi–Urdu world. Contemporary poet of sher, ghazal, and nazm — weaving emotion and rhythm into words loved across the Hindi–Urdu world.
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माना-ए-दश्त-नवर्दी कोई तदबीर नहीं
एक चक्कर है मिरे पाँव में ज़ंजीर नहीं
मैं उन्हें छेड़ूँ और कुछ न कहें
चल निकलते जो मय पिए होते
मैं और बज़्म-ए-मय से यूँ तिश्ना-काम आऊँ
गर मैं ने की थी तौबा साक़ी को क्या हुआ था
लूँ वाम बख़्त-ए-ख़ुफ़्ता से यक-ख़्वाब-ए-खुश वले
'ग़ालिब' ये ख़ौफ़ है कि कहाँ से अदा करूँ
लाज़िम था कि देखो मिरा रस्ता कोई दिन और
तन्हा गए क्यूँ अब रहो तन्हा कोई दिन और
मज़े जहान के अपनी नज़र में ख़ाक नहीं
सिवाए ख़ून-ए-जिगर सो जिगर में ख़ाक नहीं
लताफ़त बे-कसाफ़त जल्वा पैदा कर नहीं सकती
चमन ज़ंगार है आईना-ए-बाद-ए-बहारी का
लरज़ता है मिरा दिल ज़हमत-ए-मेहर-ए-दरख़्शाँ पर
मैं हूँ वो क़तरा-ए-शबनम कि हो ख़ार-ए-बयाबाँ पर
लाग़र इतना हूँ कि गर तू बज़्म में जा दे मुझे
मेरा ज़िम्मा देख कर गर कोई बतला दे मुझे
क्यूँ जल गया न ताब-ए-रुख़-ए-यार देख कर
जलता हूँ अपनी ताक़त-ए-दीदार देख कर
क्या तंग हम सितम-ज़दगाँ का जहान है
जिस में कि एक बैज़ा-ए-मोर आसमान है
कोई दिन गर ज़िंदगानी और है
अपने जी में हम ने ठानी और है
कोह के हों बार-ए-ख़ातिर गर सदा हो जाइए
बे-तकल्लुफ़ ऐ शरार-ए-जस्ता क्या हो जाइए
किसी को दे के दिल कोई नवा-संज-ए-फ़ुग़ाँ क्यूँ हो
न हो जब दिल ही सीने में तो फिर मुँह में ज़बाँ क्यूँ हो
की वफ़ा हम से तो ग़ैर इस को जफ़ा कहते हैं
होती आई है कि अच्छों को बुरा कहते हैं
ख़मोशियों में तमाशा अदा निकलती है
निगाह दिल से तिरे सुर्मा-सा निकलती है
कार-गाह-ए-हस्ती में लाला दाग़-सामाँ है
बर्क़-ए-ख़िर्मन-ए-राहत ख़ून-ए-गर्म-ए-दहक़ाँ है
करे है बादा तिरे लब से कस्ब-ए-रंग-ए-फ़रोग़
ख़त-ए-पियाला सरासर निगाह-ए-गुल-चीं है
कल के लिए कर आज न ख़िस्सत शराब में
ये सू-ए-ज़न है साक़ी-ए-कौसर के बाब में
कहूँ जो हाल तो कहते हो मुद्दआ' कहिए
तुम्हीं कहो कि जो तुम यूँ कहो तो क्या कहिए