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GHAZAL

कल के लिए कर आज न ख़िस्सत शराब में

कल के लिए कर आज न ख़िस्सत शराब में

ये सू-ए-ज़न है साक़ी-ए-कौसर के बाब में

हैं आज क्यूँ ज़लील कि कल तक न थी पसंद

गुस्ताख़ी-ए-फ़रिश्ता हमारी जनाब में

जाँ क्यूँ निकलने लगती है तन से दम-ए-समा

गर वो सदा समाई है चंग ओ रबाब में

रौ में है रख़्श-ए-उम्र कहाँ देखिए थमे

ने हाथ बाग पर है न पा है रिकाब में

उतना ही मुझ को अपनी हक़ीक़त से बोद है

जितना कि वहम-ए-ग़ैर से हूँ पेच-ओ-ताब में

अस्ल-ए-शुहूद-ओ-शाहिद-ओ-मशहूद एक है

हैराँ हूँ फिर मुशाहिदा है किस हिसाब में

है मुश्तमिल नुमूद-ए-सुवर पर वजूद-ए-बहर

याँ क्या धरा है क़तरा ओ मौज-ओ-हबाब में

शर्म इक अदा-ए-नाज़ है अपने ही से सही

हैं कितने बे-हिजाब कि हैं यूँ हिजाब में

आराइश-ए-जमाल से फ़ारिग़ नहीं हुनूज़

पेश-ए-नज़र है आइना दाइम नक़ाब में

है गै़ब-ए-ग़ैब जिस को समझते हैं हम शुहूद

हैं ख़्वाब में हुनूज़ जो जागे हैं ख़्वाब में

'ग़ालिब' नदीम-ए-दोस्त से आती है बू-ए-दोस्त

मश्ग़ूल-ए-हक़ हूँ बंदगी-ए-बू-तराब में

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