ख़ानक़ाह में सूफ़ी मुँह छुपाए बैठा है
ख़ानक़ाह में सूफ़ी मुँह छुपाए बैठा है
ग़ालिबन ज़माने से मात खाए बैठा है

@kaif-bhopali
Contemporary poet of sher, ghazal, and nazm — weaving emotion and rhythm into words loved across the Hindi–Urdu world. Contemporary poet of sher, ghazal, and nazm — weaving emotion and rhythm into words loved across the Hindi–Urdu world. Contemporary poet of sher, ghazal, and nazm — weaving emotion and rhythm into words loved across the Hindi–Urdu world.
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ख़ानक़ाह में सूफ़ी मुँह छुपाए बैठा है
ग़ालिबन ज़माने से मात खाए बैठा है
न आया मज़ा शब की तन्हाइयों में
सहर हो गई चंद अंगड़ाइयों में
अल्लाह ये किस का मातम है वो ज़ुल्फ़ जो बिखरी जाती है
आँखें है कि भीगी जाती हैं दुनिया है कि डूबी जाती है
सलाम उस पर अगर ऐसा कोई फ़नकार हो जाए
सियाही ख़ून बन जाए क़लम तलवार हो जाए
जिस पे तिरी शमशीर नहीं है
उस की कोई तौक़ीर नहीं है
गर्दिश-ए-अर्ज़-ओ-समावात ने जीने न दिया
कट गया दिन तो हमें रात ने जीने न दिया
सिर्फ़ इतने जुर्म पर हंगामा होता जाए है
तेरा दीवाना तिरी गलियों में देखा जाए है
दोस्तो अब तुम न देखोगे ये दिन
ख़त्म हैं हम पर सितम-आराईयाँ
एतकाफ़ में ज़ाहिद मुँह छुपाए बैठा है
ग़ालिबन ज़माने से मात खाए बैठा है
जब हमें मस्जिद जाना पड़ा है
राह में इक मय-ख़ाना पड़ा है
बीमार-ए-मोहब्बत की दवा है कि नहीं है
मेरे किसी पहलू में क़ज़ा है कि नहीं है
थोड़ा सा अक्स चाँद के पैकर में डाल दे
तू आ के जान रात के मंज़र में डाल दे
हम को दिवाना जान के क्या क्या ज़ुल्म न ढाया लोगों ने
दीन छुड़ाया धर्म छुड़ाया देस छुड़ाया लोगों ने
जिस्म पर बाक़ी ये सर है क्या करूँ
दस्त-ए-क़ातिल बे-हुनर है क्या करूँ
काम यही है शाम सवेरे
तेरी गली के सौ सौ फेरे
तन-ए-तन्हा मुक़ाबिल हो रहा हूँ मैं हज़ारों से
हसीनों से रक़ीबों से ग़मों से ग़म-गुसारों से
कुटिया में कौन आएगा इस तीरगी के साथ
अब ये किवाड़ बंद करो ख़ामुशी के साथ
इस तरह मोहब्बत में दिल पे हुक्मरानी है
दिल नहीं मिरा गोया उन की राजधानी है
दर-ओ-दीवार पे शक्लें सी बनाने आई
फिर ये बारिश मेरी तन्हाई चुराने आई
हम उन को छीन कर लाए हैं कितने दावेदारों से
शफ़क़ से चाँदनी-रातों से फूलों से सितारों से