एतकाफ़ में ज़ाहिद मुँह छुपाए बैठा है

एतकाफ़ में ज़ाहिद मुँह छुपाए बैठा है

ग़ालिबन ज़माने से मात खाए बैठा है


वाए-आशिक़-ए-नादाँ काएनात ये तेरी

इक शिकस्ता शीशे को दिल बनाए बैठा है


तालिबान-ए-दीद उन के धूप धूप फिरते हैं

ग़ैर उन के कूचे में साए साए बैठा है


इस तरफ़ भी ऐ साहब इल्तिफ़ात-ए-यक-मिज़्गाँ

इक ग़रीब महफ़िल में सर झुकाए बैठा है


दूर-बाश ऐ गुलचीं वा है दीदा-ए-नर्गिस

आज हर गुल-ए-नाज़ुक ख़ार खाए बैठा है


क्यूँ सुना नहीं देता फ़ैसला मुक़द्दर का

नामा-बर मिरे आगे ख़त छुपाए बैठा है


सुब्ह की हवा उन से सिर्फ़ इतना कह देना

कोई शम्अ की अब तक लौ बढ़ाए बैठा है