घर की इस बार मुकम्मल मैं तलाशी लूँगा
घर की इस बार मुकम्मल मैं तलाशी लूँगा
ग़म छुपा कर मिरे माँ बाप कहाँ रखते थे

@unknown
Contemporary poet of sher, ghazal, and nazm — weaving emotion and rhythm into words loved across the Hindi–Urdu world. Contemporary poet of sher, ghazal, and nazm — weaving emotion and rhythm into words loved across the Hindi–Urdu world. Contemporary poet of sher, ghazal, and nazm — weaving emotion and rhythm into words loved across the Hindi–Urdu world.
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घर की इस बार मुकम्मल मैं तलाशी लूँगा
ग़म छुपा कर मिरे माँ बाप कहाँ रखते थे
उन के होने से बख़्त होते हैं
बाप घर के दरख़्त होते हैं
मुझको छाँव में रखा और ख़ुद भी वो जलता रहा
मैंने देखा इक फ़रिश्ता बाप की परछाईं में
उस मेहरबाँ नज़र की इनायत का शुक्रिया
तोहफ़ा दिया है ईद पे हम को जुदाई का
ईद के बा'द वो मिलने के लिए आए हैं
ईद का चाँद नज़र आने लगा ईद के बा'द
ईद आई तुम न आए क्या मज़ा है ईद का
ईद ही तो नाम है इक दूसरे की दीद का
मिल के होती थी कभी ईद भी दीवाली भी
अब ये हालत है कि डर डर के गले मिलते हैं
न हों अशआर में माअनी न सही
खुद कलामी का ज़रिया ही सही
पूरी कायनात में एक कातिल बीमारी की हवा हो गई
वक्त ने कैसा सितम ढाया कि दूरियाँ ही दवा हो गयीं
किसी की तपिश में ख़ुशी है किसी की
किसी की ख़लिश में मज़ा है किसी का
लोग काँटों से बच के चलते हैं
मैं ने फूलों से ज़ख़्म खाए हैं
वतन की ख़ाक ज़रा एड़ियाँ रगड़ने दे
मुझे यक़ीन है पानी यहीं से निकलेगा
उस मुल्क की सरहद को कोई छू नहीं सकता
जिस मुल्क की सरहद की निगहबान हैं आँखें
एक पत्ता शजर-ए-उम्र से लो और गिरा
लोग कहते हैं मुबारक हो नया साल तुम्हें
कुछ ख़ुशियाँ कुछ आँसू दे कर टाल गया
जीवन का इक और सुनहरा साल गया
चल दिए घर से तो घर नहीं देखा करते
जाने वाले कभी मुड़ कर नहीं देखा करते
फेंक कर रात को दीवार पे मारे होते
मेरे हाथों में अगर चाँद सितारे होते
ऐ आसमान तेरे ख़ुदा का नहीं है ख़ौफ़
डरते हैं ऐ ज़मीन तेरे आदमी से हम
इस दौर-ए-सियासत का इतना सा फ़साना है
बस्ती भी जलानी है मातम भी मनाना है
मैंने उसको इतना देखा जितना देखा जा सकता था
लेकिन फिर भी दो आँखों से कितना देखा जा सकता था