गुफ़्तुगू अच्छी लगी ज़ौक़-ए-नज़र अच्छा लगा
गुफ़्तुगू अच्छी लगी ज़ौक़-ए-नज़र अच्छा लगा
मुद्दतों के बाद कोई हम-सफ़र अच्छा लगा

@ahmad-faraz
Contemporary poet of sher, ghazal, and nazm — weaving emotion and rhythm into words loved across the Hindi–Urdu world. Contemporary poet of sher, ghazal, and nazm — weaving emotion and rhythm into words loved across the Hindi–Urdu world. Contemporary poet of sher, ghazal, and nazm — weaving emotion and rhythm into words loved across the Hindi–Urdu world.
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गुफ़्तुगू अच्छी लगी ज़ौक़-ए-नज़र अच्छा लगा
मुद्दतों के बाद कोई हम-सफ़र अच्छा लगा
सामने उस के कभी उस की सताइश नहीं की
दिल ने चाहा भी अगर होंटों ने जुम्बिश नहीं की
करूँ न याद मगर किस तरह भुलाऊँ उसे
ग़ज़ल बहाना करूँ और गुनगुनाऊँ उसे
रोग ऐसे भी ग़म-ए-यार से लग जाते हैं
दर से उठते हैं तो दीवार से लग जाते हैं
अगरचे ज़ोर हवाओं ने डाल रक्खा है
मगर चराग़ ने लौ को सँभाल रक्खा है
क़ुर्बतों में भी जुदाई के ज़माने माँगे
दिल वो बे-मेहर कि रोने के बहाने माँगे
शो'ला था जल-बुझा हूँ हवाएँ मुझे न दो
मैं कब का जा चुका हूँ सदाएँ मुझे न दो
कठिन है राहगुज़र थोड़ी दूर साथ चलो
बहुत कड़ा है सफ़र थोड़ी दूर साथ चलो
अव्वल अव्वल की दोस्ती है अभी
इक ग़ज़ल है कि हो रही है अभी
भेद पाएँ तो रह-ए-यार में गुम हो जाएँ
वर्ना किस वास्ते बे-कार में गुम हो जाएँ
दिल बदन का शरीक-ए-हाल कहां
हिज्र फिर हिज्र है विसाल कहां
ऐसे चुप हैं कि ये मंज़िल भी कड़ी हो जैसे
तेरा मिलना भी जुदाई की घड़ी हो जैसे
दोस्त बन कर भी नहीं साथ निभाने वाला
वही अंदाज़ है ज़ालिम का ज़माने वाला
तेरे होते हुए महफ़िल में जलाते हैं चराग़
लोग क्या सादा हैं सूरज को दिखाते हैं चराग़
उस को जुदा हुए भी ज़माना बहुत हुआ
अब क्या कहें ये क़िस्सा पुराना बहुत हुआ
जिस से ये तबीअत बड़ी मुश्किल से लगी थी
देखा तो वो तस्वीर हर इक दिल से लगी थी
तुझ से मिल कर तो ये लगता है कि ऐ अजनबी दोस्त
तू मिरी पहली मोहब्बत थी मिरी आख़िरी दोस्त
फिर उसी रहगुज़ार पर शायद
हम कभी मिल सकें मगर शायद
अब के हम बिछड़े तो शायद कभी ख़्वाबों में मिलें
जिस तरह सूखे हुए फूल किताबों में मिलें
तेरी बातें ही सुनाने आए
दोस्त भी दिल ही दुखाने आए