क़ुर्बतों में भी जुदाई के ज़माने माँगे

क़ुर्बतों में भी जुदाई के ज़माने माँगे

दिल वो बे-मेहर कि रोने के बहाने माँगे


हम न होते तो किसी और के चर्चे होते

ख़िल्क़त-ए-शहर तो कहने को फ़साने माँगे


यही दिल था कि तरसता था मरासिम के लिए

अब यही तर्क-ए-तअल्लुक़ के बहाने माँगे


अपना ये हाल कि जी हार चुके लुट भी चुके

और मोहब्बत वही अंदाज़ पुराने माँगे


ज़िंदगी हम तिरे दाग़ों से रहे शर्मिंदा

और तू है कि सदा आईना-ख़ाने माँगे


दिल किसी हाल पे क़ाने ही नहीं जान-ए-'फ़राज़'

मिल गए तुम भी तो क्या और न जाने माँगे