क्यूँ इंतिहा-ए-होश को कहते हैं बे-ख़ुदी
क्यूँ इंतिहा-ए-होश को कहते हैं बे-ख़ुदी
ख़ुर्शीद ही की आख़िरी मंज़िल तो रात है

@firaq-gorakhpuri
Contemporary poet of sher, ghazal, and nazm — weaving emotion and rhythm into words loved across the Hindi–Urdu world. Contemporary poet of sher, ghazal, and nazm — weaving emotion and rhythm into words loved across the Hindi–Urdu world. Contemporary poet of sher, ghazal, and nazm — weaving emotion and rhythm into words loved across the Hindi–Urdu world.
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क्यूँ इंतिहा-ए-होश को कहते हैं बे-ख़ुदी
ख़ुर्शीद ही की आख़िरी मंज़िल तो रात है
बहुत दिनों में मोहब्बत को ये हुआ मा'लूम
जो तेरे हिज्र में गुज़री वो रात रात हुई
ज़िंदगी क्या है आज इसे ऐ दोस्त
सोच लें और उदास हो जाएँ
मैं मुद्दतों जिया हूँ किसी दोस्त के बग़ैर
अब तुम भी साथ छोड़ने को कह रहे हो ख़ैर
ये न पूछ कितना जिया हूँ मैं ये न पूछ कैसे जिया हूँ मैं
कि अबद की आँख भी लग गई मेरे ग़म की शाम-ए-दराज़ में
बर्क़-ए-फ़ना भी खाए जहाँ ठोकरें 'फ़िराक़'
राह-ए-वफ़ा में आते हैं ऐसे मक़ाम भी
हर फ़रेब-ए-ग़म-ए-दुनिया से ख़बरदार तो है
तेरा दीवाना किसी काम में हुशियार तो है
तू याद आया तेरे जौर-ओ-सितम लेकिन न याद आए
मोहब्बत में ये मा'सूमी बड़ी मुश्किल से आती है
ख़ैर सच तो है सच मगर ऐ झूठ
मैंने तेरा भी एतिबार किया
दिलों को तेरे तबस्सुम की याद यूँ आई
कि जगमगा उठें जिस तरह मंदिरों में चराग़
मैं हूँ दिल है तन्हाई है
तुम भी होते अच्छा होता
वो रातों-रात 'सिरी-कृष्ण' को उठाए हुए
बला की क़ैद से 'बसदेव' का निकल जाना
बिजली की तरह लचक रहे हैं लच्छे
भाई के है बांधी चमकती राखी
न कोई वा'दा न कोई यक़ीं न कोई उमीद
मगर हमें तो तिरा इंतिज़ार करना था
ख़ुश भी हो लेते हैं तेरे बे-क़रार
ग़म ही ग़म हो इश्क़ में ऐसा नहीं
मौत का भी इलाज हो शायद
ज़िंदगी का कोई इलाज नहीं
लहू वतन के शहीदों का रंग लाया है
उछल रहा है ज़माने में नाम-ए-आज़ादी
सर-ज़मीन-ए-हिंद पर अक़्वाम-ए-आलम के 'फ़िराक़'
क़ाफ़िले बसते गए हिन्दोस्ताँ बनता गया
शामें किसी को माँगती हैं आज भी 'फ़िराक़'
गो ज़िंदगी में यूँ मुझे कोई कमी नहीं
अरे सय्याद हमीं गुल हैं हमीं बुलबुल हैं
तू ने कुछ आह सुना भी नहीं देखा भी नहीं