आ निकल के मैदाँ में दो-रुख़ी के ख़ाने से
आ निकल के मैदाँ में दो-रुख़ी के ख़ाने से
काम चल नहीं सकता अब किसी बहाने से

@majrooh-sultanpuri
Contemporary poet of sher, ghazal, and nazm — weaving emotion and rhythm into words loved across the Hindi–Urdu world. Contemporary poet of sher, ghazal, and nazm — weaving emotion and rhythm into words loved across the Hindi–Urdu world. Contemporary poet of sher, ghazal, and nazm — weaving emotion and rhythm into words loved across the Hindi–Urdu world.
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आ निकल के मैदाँ में दो-रुख़ी के ख़ाने से
काम चल नहीं सकता अब किसी बहाने से
उठाए जा उन के सितम और जिए जा
यूँ ही मुस्कुराए जा आँसू पिए जा
हमारे बाद अब महफ़िल में अफ़्साने बयाँ होंगे
बहारें हम को ढूँढेंगी न जाने हम कहाँ होंगे
मुझे सहल हो गईं मंज़िलें वो हवा के रुख़ भी बदल गए
तिरा हाथ हाथ में आ गया कि चराग़ राह में जल गए
आह-ए-जाँ-सोज़ की महरूमी-ए-तासीर न देख
हो ही जाएगी कोई जीने की तदबीर न देख
जला के मिशअल-ए-जाँ हम जुनूँ-सिफ़ात चले
जो घर को आग लगाए हमारे साथ चले
यूँ तो आपस में बिगड़ते हैं ख़फ़ा होते हैं
मिलने वाले कहीं उल्फ़त में जुदा होते हैं
कोई हम-दम न रहा कोई सहारा न रहा
हम किसी के न रहे कोई हमारा न रहा
हम को जुनूँ क्या सिखलाते हो हम थे परेशाँ तुम से ज़ियादा
चाक किए हैं हम ने अज़ीज़ो चार गरेबाँ तुम से ज़ियादा
जब हुआ इरफ़ाँ तो ग़म आराम-ए-जाँ बनता गया
सोज़-ए-जानाँ दिल में सोज़-ए-दीगराँ बनता गया
हम हैं मता-ए-कूचा-ओ-बाज़ार की तरह
उठती है हर निगाह ख़रीदार की तरह