मुझे सहल हो गईं मंज़िलें वो हवा के रुख़ भी बदल गए 

मुझे सहल हो गईं मंज़िलें वो हवा के रुख़ भी बदल गए 

तिरा हाथ हाथ में आ गया कि चराग़ राह में जल गए 

वो लजाए मेरे सवाल पर कि उठा सके न झुका के सर 

उड़ी ज़ुल्फ़ चेहरे पे इस तरह कि शबों के राज़ मचल गए 

वही बात जो वो न कह सके मिरे शेर-ओ-नग़्मा में आ गई 

वही लब न मैं जिन्हें छू सका क़दह-ए-शराब में ढल गए 

वही आस्ताँ है वही जबीं वही अश्क है वही आस्तीं 

दिल-ए-ज़ार तू भी बदल कहीं कि जहाँ के तौर बदल गए 

तुझे चश्म-ए-मस्त पता भी है कि शबाब गर्मी-ए-बज़्म है 

तुझे चश्म-ए-मस्त ख़बर भी है कि सब आबगीने पिघल गए 

मिरे काम आ गईं आख़िरश यही काविशें यही गर्दिशें 

बढ़ीं इस क़दर मिरी मंज़िलें कि क़दम के ख़ार निकल गए 

वही आस्ताँ है वही जबीं वही अश्क है वही आस्तीं 

दिल-ए-ज़ार तू भी बदल कहीं कि जहाँ के तौर बदल गए 

तुझे चश्म-ए-मस्त पता भी है कि शबाब गर्मी-ए-बज़्म है 

तुझे चश्म-ए-मस्त ख़बर भी है कि सब आबगीने पिघल गए 

मिरे काम आ गईं आख़िरश यही काविशें यही गर्दिशें 

बढ़ीं इस क़दर मिरी मंज़िलें कि क़दम के ख़ार निकल गए