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हम इक ही लौ में जलाते रहे ग़ज़ल अपनी

हम इक ही लौ में जलाते रहे ग़ज़ल अपनी

नई हवा से बचाते रहे ग़ज़ल अपनी

दरअस्ल उसको फ़क़त चाय ख़त्म करनी थी

हम उसके कप को सुनाते रहे ग़ज़ल अपनी

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हम इक ही लौ में जलाते रहे ग़ज़ल अपनी — Zubair Ali Tabish • ShayariPage