बस इक निगाह-ए-नाज़ को तरसा हुआ था मैं

बस इक निगाह-ए-नाज़ को तरसा हुआ था मैं

हालांकि शहर-शहर में फैला हुआ था मैं


मुद्दत के बाद आइना देखा तो रो पड़ा

किस बेहतरीन दोस्त से रूठा हुआ था मैं


पहना जो रेनकोट तो बारिश नहीं हुई

लौटा जो घर तो शर्म से भीगा हुआ था मैं


पहले भी दी गई थी मुझे बज़्म की दुआ

पहले भी इस दुआ पे अकेला हुआ था मैं


कितनी अजीब बात है ना! तू ही आ गया!

तेरे ही इंतज़ार में बैठा हुआ था मैं