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GHAZAL

ज़रा सा क़तरा कहीं आज अगर उभरता है

ज़रा सा क़तरा कहीं आज अगर उभरता है

समुंदरों ही के लहजे में बात करता है

खुली छतों के दिए कब के बुझ गए होते

कोई तो है जो हवाओं के पर कतरता है

शराफ़तों की यहाँ कोई अहमियत ही नहीं

किसी का कुछ न बिगाड़ो तो कौन डरता है

ये देखना है कि सहरा भी है समुंदर भी

वो मेरी तिश्ना-लबी किस के नाम करता है

तुम आ गए हो तो कुछ चाँदनी सी बातें हों

ज़मीं पे चाँद कहाँ रोज़ रोज़ उतरता है

ज़मीं की कैसी वकालत हो फिर नहीं चलती

जब आसमाँ से कोई फ़ैसला उतरता है

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ज़रा सा क़तरा कहीं आज अगर उभरता है — Waseem Barelvi • ShayariPage