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GHAZAL

मेरे ग़म को जो अपना बताते रहे

मेरे ग़म को जो अपना बताते रहे

वक़्त पड़ने पे हाथों से जाते रहे

बारिशें आईं और फ़ैसला कर गईं

लोग टूटी छतें आज़माते रहे

आँखें मंज़र हुईं कान नग़्मा हुए

घर के अंदाज़ ही घर से जाते रहे

शाम आई तो बिछड़े हुए हम-सफ़र

आँसुओं से इन आँखों में आते रहे

नन्हे बच्चों ने छू भी लिया चाँद को

बूढ़े बाबा कहानी सुनाते रहे

दूर तक हाथ में कोई पत्थर न था

फिर भी हम जाने क्यूँ सर बचाते रहे

शाइरी ज़हर थी क्या करें ऐ 'वसीम'

लोग पीते रहे हम पिलाते रहे

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मेरे ग़म को जो अपना बताते रहे — Waseem Barelvi • ShayariPage