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GHAZAL

चला है सिलसिला कैसा ये रातों को मनाने का

चला है सिलसिला कैसा ये रातों को मनाने का

तुम्हें हक़ दे दिया किसने दियों के दिल दुखाने का

इरादा छोड़िए अपनी हदों से दूर जाने का

ज़माना है ज़माने की निगाहों में न आने का

कहाँ की दोस्ती किन दोस्तों की बात करते हो

मियाँ दुश्मन नहीं मिलता कोई अब तो ठिकाने का

निगाहों में कोई भी दूसरा चेहरा नहीं आया

भरोसा ही कुछ ऐसा था तुम्हारे लौट आने का

ये मैं ही था बचा के ख़ुद को ले आया किनारे तक

समन्दर ने बहुत मौक़ा दिया था डूब जाने का

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चला है सिलसिला कैसा ये रातों को मनाने का — Waseem Barelvi • ShayariPage