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GHAZAL

तिरे चेहरे की रौनक़ खा रहा है

तिरे चेहरे की रौनक़ खा रहा है

ये किसका ग़म तुझे तड़पा रहा है।

हमारा सब्र तो पूरा रहा था

हमारा फल मगर फीका रहा है

मै उसका सातवाँ हूँ इश्क़ तो क्या

वो मेरा कौनसा पहला रहा है।

तिरा दुख है तो क्या हैं रोज़ के दुख

नये पौदों को बरगद खा रहा है।

बिछड़ने में मज़ा भी था सज़ा भी

मैं अब ख़ुश हूँ तो वो पछता रहा है

हमारे दरम्याँ उलफ़त नहीं है

हमारे बीच समझौता रहा है

अजाइब घर में रक्खी जाएँगी सब

वो जिस-जिस चीज़ को छूता रहा है

खड़ी है शाम फिर बाहें पसारे

कोई भूला सहर का आ रहा है

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