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GHAZAL

मरहम के नहीं हैं ये तरफ़-दार नमक के

मरहम के नहीं हैं ये तरफ़-दार नमक के

निकले हैं मिरे ज़ख़्म तलबगार नमक के

आया कोई सैलाब कहानी में अचानक

और घुल गए पानी में वो किरदार नमक के

दोनों ही किनारों पे थी बीमारों की मज्लिस

इस पार थे मीठे के तो उस पार नमक के

उस ने ही दिए ज़ख़्म ये गर्दन पे हमारी

फिर उस ने ही पहनाए हमें हार नमक के

कहती थी ग़ज़ल मुझ को है मरहम की ज़रूरत

और देते रहे सब उसे अशआ'र नमक के

जिस सम्त मिला करती थीं ज़ख़्मों की दवाएँ

सुनते हैं कि अब हैं वहाँ बाज़ार नमक के

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