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NAZM

ज़मीन गूँगी हो रही है

ज़मीन गूँगी हो रही है

परिंदे चुप साधे

उजड़ी शाख़ों पे बैठे नौहा-कुनाँ हैं

रात के बदन पे

नींद के प्याले औंधे पड़े बिलक रहे हैं

औरतों के रहम में

ज़िंदा लाशों के गलने-सड़ने से तअ'फ़्फ़ुन फैल रहा है

ख़्वाब बस्तियाँ उजड़ रही हैं

समुंदरों ने देखा

मौत दाँत निकोसती दनदनाती फिरती है

बुढ़िया खिड़की से झाँकते चीख़ी

कोई मज़हब

उसे लगाम क्यों नहीं डालता

कैसी शुत्र-ए-बे-महार हुई फिरती है

कोई दुआ उस का गला क्यों नहीं घोंटती

इस मनहूस को तावीज़ घोल कर पिलाओ

दरबारों में झाड़ू देती

बेवक़ूफ़ बुढ़िया

फ़िल्म का वही किरदार हिट होता है

जिस ने

रीहरसल की हो

खिड़की में सन्नाटा फैल गया

मौत ने अपना गीत जारी रखा

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ज़मीन गूँगी हो रही है — Unknown • ShayariPage