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NAZM

वफ़ा के पैमान सब भुला कर

वफ़ा के पैमान सब भुला कर

जफ़ाएँ करते वफ़ा के क़ातिल

रसूल-ए-हक़ के जो उम्मती हैं

वही हैं आल-ए-एबा के क़ातिल

ये उस की अपनी ही मस्लहत है

वो जिस्म रखता नहीं है वर्ना

ये मंसबों के ग़सब के आदी

ज़रूर होते ख़ुदा के क़ातिल

न ही अमानत न ही दियानत

न ही सदाक़त न ही शराफ़त

नबी के मिम्बर पर आ गए हैं

नबी की हर इक अदा के क़ातिल

इमाम जिन का यज़ीद होगा

वो कैसे जानें हुसैन क्या है

बने भी हैं क़ारी ला-इलाह के

ये ला-इलाह की बक़ा के क़ातिल

ये मंसबों के ग़सब के आदी

ज़रूर होते ख़ुदा के क़ातिल

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वफ़ा के पैमान सब भुला कर — Unknown • ShayariPage