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GHAZAL

झुक के चलता हूँ कि क़द उसके बराबर न लगे

झुक के चलता हूँ कि क़द उसके बराबर न लगे

दूसरा ये कि उसे राह में ठोकर न लगे

ये तेरे साथ तअ'ल्लुक़ का बड़ा फ़ायदा है

आदमी हो भी तो औक़ात से बाहर न लगे

नीम तारीक सा माहौल है दरकार मुझे

ऐसा माहौल जहाँ आँख लगे डर न लगे

माँओं ने चूमना होते हैं बुरीदा सर भी

उस से कहना कि कोई ज़ख़्म जबीं पर न लगे

ये तलबगार निगाहों के तक़ाज़े हर सू

कोई तो ऐसी जगह हो जो मुझे घर न लगे

ये जो आईना है देखूँ तो ख़ला दिखता है

इस जगह कुछ भी न लगवाऊँ तो बेहतर न लगे

तुम ने छोड़ा तो किसी और से टकराऊँगा मैं

कैसे मुमकिन है कि अंधे का कहीं सर न लगे

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झुक के चलता हूँ कि क़द उसके बराबर न लगे — Umair Najmi • ShayariPage