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GHAZAL

एक तारीख़ मुक़र्रर पे तो हर माह मिले

एक तारीख़ मुक़र्रर पे तो हर माह मिले

जैसे दफ़्तर में किसी शख़्स को तनख़्वाह मिले

रंग उखड़ जाए तो ज़ाहिर हो प्लस्तर की नमी

क़हक़हा खोद के देखो तो तुम्हें आह मिले

जम्अ' थे रात मिरे घर तिरे ठुकराए हुए

एक दरगाह पे सब रांदा-ए-दरगाह मिले

मैं तो इक आम सिपाही था हिफ़ाज़त के लिए

शाह-ज़ादी ये तिरा हक़ था तुझे शाह मिले

एक उदासी के जज़ीरे पे हूँ अश्कों में घिरा

मैं निकल जाऊँ अगर ख़ुश्क गुज़रगाह मिले

इक मुलाक़ात के टलने की ख़बर ऐसे लगी

जैसे मज़दूर को हड़ताल की अफ़्वाह मिले

घर पहुँचने की न जल्दी न तमन्ना है कोई

जिस ने मिलना हो मुझे आए सर-ए-राह मिले

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