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NAZM

मुझ पे तेरी तमन्ना का इल्ज़ाम साबित न होता तो सब ठीक था

मुझ पे तेरी तमन्ना का इल्ज़ाम साबित न होता तो सब ठीक था

ज़माना तेरी रौशनी के तसलसुल की क़समें उठाता है

और में तेरे साथ रह कर भी तारीखियों

के तनज़ूर में मारा गया

मुझ पे नज़र-ए-करम कर

मुखातिब हो मुझसे

मुझे ये बता मैं तेरा कौन हूँ?

इस ताअल्लुक़ की क्यारी में उगते हुए फूल को नाम दे

मुझ को तेरी मोहब्बत पे शक तो नहीं

पर मेरे नाम से तेरे सीने में रखी हुई ईंट धड़के तो मानो

कब तलक मैं तेरी ख़ामोशी से यूंही अपने मर्ज़ी के मतलब निकालूँगा

मुझ को आवाज़ दे चाहे वो मेरे हक़ में बुरी हो

तेरी आवाज़ सुनने की ख्वाहिश में कानों के परदे खींचे जा रहे हैं

बोलदे कुछ भी जो तेरा जी चाहे.. बोल ना!

तेरे होंठों पे मकड़ी के जालों के जमने का दुःख तो बरहाल मुझ को हमेशा रहेगा

तूने चुपी ही सादनी थी तो इज़हार ही क्यों किया था?

ये तो ऐसे है बचपन में जैसे कहीं खेलते खेलते कोई किसी को 'स्टेचू' कहे और फिर उम्र भर उसको मुड़ कर न देखे

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