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NAZM

कितना अर्सा लगा ना-उमीदी के पर्बत से पत्थर हटाते हुए

कितना अर्सा लगा ना-उमीदी के पर्बत से पत्थर हटाते हुए

एक बिफरी हुई लहर को राम करते हुए

ना-ख़ुदाओं में अब पीछे कितने बचे हैं?

रौशनी और अँधेरे की तफ़रीक़ में कितने लोगों ने आँखें गँवा दीं

कितनी सदियाँ सफ़र में गुज़ारीं

मगर आज फिर उस जगह हैं जहाँ से हमें अपनी माओं ने

रुख़्सत किया था

अपने सब से बड़े ख़्वाब को अपनी आँखों के आगे उजड़ते हुए

देखने से बुरा कुछ नहीं है

तेरी क़ुर्बत में या तुझ से दूरी पे जितनी गुज़ारी

तेरी चूड़ियों की क़सम ज़िंदगी दाएरों के सिवा कुछ नहीं है

कुहनियों से हमें अपना मुँह ढाँप कर खाँसने को बड़ों ने कहा था

तो हम उन पे हँसते थे और सोचते थे कि उन को टिशू-पेपरों की महक से एलर्जी है

लेकिन हमें ये पता ही नहीं था कि उन पे वो आफ़ात टूटी हैं

जिन का हमें इक सदी बा'द फिर सामना है

वबा के दिनों में किसे होश रहता है

किस हाथ को छोड़ना है किसे थामना है

इक रियाज़ी के उस्ताद ने अपने हाथों में परकार ले कर

ये दुनिया नहीं, दायरा खींचना था

ख़ैर जो भी हुआ तुम भी पुरखों के नक़्श-ए-क़दम पर चलो

और अपनी हिफ़ाज़त करो

कुछ महीने तुम्हें अपने तस्मे नहीं बाँधने

इस से आगे तो तुम पे है तुम अपनी मंज़िल पे पहुँचो या फिर रास्तों में रहो

इस से पहले कि तुम अपने महबूब को वेंटीलेटर पे देखो

घरों में रहो

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कितना अर्सा लगा ना-उमीदी के पर्बत से पत्थर हटाते हुए — Tehzeeb Hafi • ShayariPage