Shayari Page
GHAZAL

मुसलसल वार करने पर भी ज़र्रा भर नहीं टूटा

मुसलसल वार करने पर भी ज़र्रा भर नहीं टूटा

मैं पत्थर हो गया फिर भी तेरा ख़ंजर नहीं टूटा

मुझे बर्बाद करने तक ही उसके आस्ताँ टूटे

मेरा दिल टूटने के बाद उसका घर नहीं टूटा

हम उसका ग़म भला क़िस्मत पे कैसे टाल सकते हैं

हमारे हाथ में टूटा है वो गिरकर नहीं टूटा

सरों पर आसमाँ आँखों से आईने नज़र से दिल

बहुत कुछ टूट सकता था बहुत कुछ पर नहीं टूटा

तिलिस्म-ए-यार में जब भी कमी आई नमी आई

उन आँखों में जिन्हें लगता था जादूगर नहीं टूटा

तेरे भेजे हुए तेशों की धारें तेज़ थी 'हाफ़ी'

मगर इनसे ये कोह-ए-ग़म ज़ियादा तर नहीं टूटा

Comments

Loading comments…
मुसलसल वार करने पर भी ज़र्रा भर नहीं टूटा — Tehzeeb Hafi • ShayariPage