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GHAZAL

मेरे बस में नहीं वरना कुदरत का लिखा हुआ काटता

मेरे बस में नहीं वरना कुदरत का लिखा हुआ काटता

तेरे हिस्से में आए बुरे दिन कोई दूसरा काटता

लारियों से ज्यादा बहाव था तेरे हर इक लफ्ज़ में

मैं इशारा नहीं काट सकता तेरी बात क्या काटता

मैंने भी ज़िंदगी और शब ए हिज़्र काटी है सबकी तरह

वैसे बेहतर तो ये था के मैं कम से कम कुछ नया काटता

तेरे होते हुए मोमबत्ती बुझाई किसी और ने

क्या ख़ुशी रह गयी थी जन्मदिन की, मैं केक क्या काटता

कोई भी तो नहीं जो मेरे भूखे रहने पे नाराज़ हो

जेल में तेरी तस्वीर होती तो हंसकर सज़ा काटता

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