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GHAZAL

ये सर्द रातें भी बन कर अभी धुआँ उड़ जाएँ

ये सर्द रातें भी बन कर अभी धुआँ उड़ जाएँ

वो इक लिहाफ़ मैं ओढूँ तो सर्दियाँ उड़ जाएँ

ख़ुदा का शुक्र कि मेरा मकाँ सलामत है

हैं उतनी तेज़ हवाएँ कि बस्तियाँ उड़ जाएँ

ज़मीं से एक तअल्लुक़ ने बाँध रक्खा है

बदन में ख़ून नहीं हो तो हड्डियाँ उड़ जाएँ

बिखर बिखर सी गई है किताब साँसों की

ये काग़ज़ात ख़ुदा जाने कब कहाँ उड़ जाएँ

रहे ख़याल कि मज्ज़ूब-ए-इश्क़ हैं हम लोग

अगर ज़मीन से फूंकें तो आसमाँ उड़ जाएँ

हवाएँ बाज़ कहाँ आती हैं शरारत से

सरों पे हाथ न रक्खें तो पगड़ियाँ उड़ जाएँ

बहुत ग़ुरूर है दरिया को अपने होने पर

जो मेरी प्यास से उलझे तो धज्जियाँ उड़ जाएँ

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