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GHAZAL

मुझ में कितने राज़ हैं बतलाऊँ क्या

मुझ में कितने राज़ हैं बतलाऊँ क्या

बंद एक मुद्दत से हूँ खुल जाऊँ क्या

आजिज़ी मिन्नत ख़ुशामद इल्तिजा

और मैं क्या क्या करूँ मर जाऊँ क्या

तेरे जलसे में तेरा परचम लिए

सैकड़ों लाशें भी हैं गिनवाऊँ क्या

कल यहाँ मैं था जहाँ तुम आज हो

मैं तुम्हारी ही तरह इतराऊँ क्या

एक पत्थर है वो मेरी राह का

गर न ठुकराऊँ तो ठोकर खाऊँ क्या

फिर जगाया तूने सोए शेर को

फिर वही लहजा दराज़ी आऊँ क्या

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