मुझ में कितने राज़ हैं बतलाऊँ क्या
मुझ में कितने राज़ हैं बतलाऊँ क्या
बंद एक मुद्दत से हूँ खुल जाऊँ क्या
आजिज़ी मिन्नत ख़ुशामद इल्तिजा
और मैं क्या क्या करूँ मर जाऊँ क्या
तेरे जलसे में तेरा परचम लिए
सैकड़ों लाशें भी हैं गिनवाऊँ क्या
कल यहाँ मैं था जहाँ तुम आज हो
मैं तुम्हारी ही तरह इतराऊँ क्या
एक पत्थर है वो मेरी राह का
गर न ठुकराऊँ तो ठोकर खाऊँ क्या
फिर जगाया तूने सोए शेर को
फिर वही लहजा दराज़ी आऊँ क्या