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GHAZAL

मुझे डुबो के बहुत शर्मसार रहती है

मुझे डुबो के बहुत शर्मसार रहती है

वो एक मौज जो दरिया के पार रहती है

हमारे ताक़ भी बे-ज़ार हैं उजालों से

दिए की लौ भी हवा पर सवार रहती है

फिर उस के बा'द वही बासी मंज़रों के जुलूस

बहार चंद ही लम्हे बहार रहती है

इसी से क़र्ज़ चुकाए हैं मैं ने सदियों के

ये ज़िंदगी जो हमेशा उधार रहती है

हमारी शहर के दानिशवरों से यारी है

इसी लिए तो क़बा तार तार रहती है

मुझे ख़रीदने वालो क़तार में आओ

वो चीज़ हूँ जो पस-ए-इश्तिहार रहती है

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