हाथ ख़ाली हैं तिरे शहर से जाते जाते

हाथ ख़ाली हैं तिरे शहर से जाते जाते

जान होती तो मिरी जान लुटाते जाते

अब तो हर हाथ का पत्थर हमें पहचानता है

उम्र गुज़री है तिरे शहर में आते जाते

अब के मायूस हुआ यारों को रुख़्सत कर के

जा रहे थे तो कोई ज़ख़्म लगाते जाते

रेंगने की भी इजाज़त नहीं हम को वर्ना

हम जिधर जाते नए फूल खिलाते जाते

मैं तो जलते हुए सहराओं का इक पत्थर था

तुम तो दरिया थे मिरी प्यास बुझाते जाते

मुझ को रोने का सलीक़ा भी नहीं है शायद

लोग हँसते हैं मुझे देख के आते जाते

हम से पहले भी मुसाफ़िर कई गुज़रे होंगे

कम से कम राह के पत्थर तो हटाते जाते