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GHAZAL

घर से ये सोच के निकला हूँ कि मर जाना है

घर से ये सोच के निकला हूँ कि मर जाना है

अब कोई राह दिखा दे कि किधर जाना है

जिस्म से साथ निभाने की मत उम्मीद रखो

इस मुसाफ़िर को तो रस्ते में ठहर जाना है

मौत लम्हे की सदा ज़िंदगी उम्रों की पुकार

मैं यही सोच के ज़िंदा हूँ कि मर जाना है

नश्शा ऐसा था कि मय-ख़ाने को दुनिया समझा

होश आया तो ख़याल आया कि घर जाना है

मिरे जज़्बे की बड़ी क़द्र है लोगों में मगर

मेरे जज़्बे को मिरे साथ ही मर जाना है

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घर से ये सोच के निकला हूँ कि मर जाना है — Rahat Indori • ShayariPage