"शराब नहीं, शराबियत, यानी अल्कोहलिज़्म"

"शराब नहीं, शराबियत, यानी अल्कोहलिज़्म"

आदत जिसको समझे हो

वो मर्ज़ कभी बन जाएगा

फिर मर्ज़ की आदत पड़ जाएगी

अर्ज़ ना कुछ कर पाओगे

गर तब्दीली की गुंजाइश ने

साथ दिया तो ठीक सही

पर उसने भी गर छोड़ दिया

तो यार बड़े पछताओगे

जो बूँद कहीं बोतल की थी

तो साथ वहीं दो पल का था

फिर पता नहीं कब दो पल का वो

साथ सदी में बदल गया

हम चुप्प बैठके सुन्न गुज़रते

लम्हे को ना समझ सके

वो कब भीगी उन पलकों की

उस सुर्ख़ नमी में बदल गया

और नींद ना जाने कहाँ गई

उन सहमी सिकुड़ी रातों में

हम सन्नाटे को चीर राख से भरा

अँधेरा तकते थे

फिर सिहर-सिहर फिर काँप-काँप के

थाम कलेजा हाथों में

जिसको ना वापस आना था

वो गया सवेरा तकते थे

जिसको समझे हो तुम मज़ाक़

वो दर्द की आदत पड़ जाएगी

अर्ज़ ना कुछ कर पाओगे

गर तब्दीली की गुंजाइश ने

साथ दिया तो ठीक सही

पर उसने भी गर छोड़ दिया

तो यार बड़े पछताओगे

कट-फट के हम बिखर चुके थे

जब तुम आए थे भाई

और सभी रास्ते गुज़र चुके थे

जब तुम आए थे भाई

वो दौर ना तुमसे देखा था

वो क़िस्से ना सुन पाए थे

जिस दौर की आँधी काली थी

जिस दौर के काले साए थे

उस दौर नशे में ज़ेहन था

उस दौर नशे में ये मन था

उस दौर पेशानी गीली थी

उस दौर पसीने में तन था

उस दौर में सपने डर लाते

उस दौर दुपहरी सन्नाटा

उस दौर सभी कुछ था भाई

और सच बोलें कुछ भी ना था

ये नर्म सुरीला नग़मा कड़वी

तर्ज़ कभी बन जाएगा

फिर तर्ज़ की आदत पड़ जाएगी

अर्ज़ ना कुछ कर पाओगे

गर तब्दीली की गुंजाइश ने

साथ दिया तो ठीक सही

पर उसने भी गर छोड़ दिया तो

यार बड़े पछताओगे

उस दौर से पहले दौर रहा

जब साथ ज़िंदगी रहती थी

वो दौर बड़ा पुरज़ोर रहा

जब साथ बंदगी रहती थी

जब साथ क़हक़हों का होता

जब बात लतीफ़ों की होती

और शाम महकते ख़्वाबों की

और रात हसीनों की होती

जब कहे नाज़नीं बोलो साजन

कौर पहर को आऊँ मैं

और हुस्न कहे कि तू मेरा

और तेरा ही हो जाऊँ मैं

बस मैं पागल ना समझ सका

किस ओर तरफ़ को जाना है

बस जाम ने खींचा, बोतल इतराई

कि तुझको आना है

मैं मयख़ाने की ओर चला

ये भूल के पीछे क्या होता

इक नन्हा बचपन सुन्न हिचकियाँ

अटक-अटक के जो रोता

इक भरी जवानी कसक मार के

चुप-चुप बैठी रहती है

और ख़ामोशी से ‘खा लेना कुछ’

नम आँखों से कहती है

उन सहमी सिसकी रातों को मैं

कभी नहीं ना समझ सका

उन पल्लू ठूँसी फफक फफकती

बातों में ना अटक सका

ये कभी-कभार का काम

अटूटा फ़र्ज़ कभी बन जाएगा

फिर फ़र्ज़ की आदत पड़ जाएगी

अर्ज़ ना कुछ कर पाओगे

गर तब्दीली की गुंजाइश ने

साथ दिया तो ठीक सही

पर उसने भी गर छोड़ दिया तो

यार बड़े पछताओगे

वो पछतावे के आँसू भी

मैं साथ नहीं ला पाया था

उन जले पुलों की क्या बोलूँ

जो जला जला के आया था

वो बोले थे कि देखो इसको

ज़र्द-सर्द इंसान है ये

इक ज़िंदा दिल तबियत में बैठा

मुर्दादिल हैवान है ये

मैं शर्मसार तो क्या होता

मैं शर्म जला के आया था

उस सुर्ख़ जाम को सुर्ख़ लार में

नहला कर के आया था

मैं आँख की लाली साथ लहू

मदहोश कहीं पे रहता था

ख़ूँख़ार चुटकले तंज़ लतीफ़े

बना-बना के कहता था

ये दर्द को सहने का झूठा

हमदर्द कभी बन जाएगा

हमदर्द की आदत पड़ जाएगी

अर्ज़ ना कुछ कर पाओगे

गर तब्दीली की गुंज़ाइश ने

साथ दिया तो ठीक सही

पर उसने भी गर छोड़ दिया तो

यार बड़े पछताओगे