"जीना इसी का नाम है"

"जीना इसी का नाम है"

दर-ब-दर की ठोकरों का लुत्फ़ पूछो क्या सनम

आवारगी को हमने तो अल्लाह समझ लिया...!

ज़िंदगी से बात की इक कश लिया फिर चल दिए

ज़िंदगी को धुएँ का छल्ला समझ लिया...

वक़्त से यारी हमारी जम नहीं पाई कभी

वो जो मिला हमको नहीं

बोला वो करता था यही...

कि संग चल ओ यार मेरे संग चल हाँ संग चल

तू छोड़ परवाह और कुछ बस संग चल बस संग चल...

हर आह मीठी हो पड़ेगी जो रहूँगा साथ मैं

हर राह सीधी हो पड़ेगी जो रहूँगा साथ मैं...

मैं पर्वतों के इस सिरे से उस सिरे तक ले चलूँ

कि जिस सिरे पे बैठने का ख़्वाब पाले बैठा तू!

पर क्या बताएँ हमको तो आदत ही कुछ ऐसी पड़ी

वो बात करता रास्तों की हम करे पगडंडी की...

वो जन्नतों की बात करता हम ये कह देते मियाँ

कि दोज़ख़ों का भी लगे हाथों ना ले लें जायज़ा...?

वो पक गया वो चट गया

फिर एक दिन बोला यही...

कि बिन मेरे तू क्या करेगा

तूने सोचा है कभी...?

...अब हमने भी फिर ज़ोर डाला थोड़ा-सा दिम्माग़ पर

और बोले क्यों ना कश लगा लें इक तुम्हारी बात पर...

होंठ के आगे ये अंगारा सुलग जो जाएगा

तो आग पे सोचेंगे सोचो लुत्फ़ आएगा...

वो बोला कि बस पंगा यही

ये आग मुझको दे दे तू

फिर जो कहेगा तेरे क़दमों में पड़ा

है शर्त यूँ...

तो हम भड़क के हट लिए और हम कड़क के फट लिए

कि एक तो तूने हमें निठल्ला समझ लिया...

अरे सौदे हमने भी किए हैं जो हमें तूने यूँ ही

इक नातजुर्बेकार-सा दल्ला समझ लिया...