"सरहद-पार का एक ख़त पढ़ कर"

"सरहद-पार का एक ख़त पढ़ कर"


दवा की शीशी में

सूरज

उदास कमरे में चाँद

उखड़ती साँसों में रह रह के

एक नाम की गूँज....!

तुम्हारे ख़त को कई बार पढ़ चुका हूँ मैं

कोई फ़क़ीर खड़ा गिड़गिड़ा रहा था अभी

बिना उठे उसे धुत्कार कर भगा भी चुका

गली में खेल रहा था पड़ोस का बच्चा

बुला कर पास उसे मार कर रुला भी चुका

बस एक आख़िरी सिगरेट बचा था पैकेट में

उसे भी फूँक चुका

घिस चुका

बुझा भी चुका

न जाने वक़्त है क्या दूर तक है सन्नाटा

फ़क़त मुंडेर के पिंजरे में ऊँघता पंछी

कभी कभी यूँही पंजे चिल्लाने लगता है

फिर अपने-आप ही

दाने उठाने लगता है

तुम्हारे ख़त को