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GHAZAL

ज़मीं दी है तो थोड़ा सा आसमाँ भी दे

ज़मीं दी है तो थोड़ा सा आसमाँ भी दे

मिरे ख़ुदा मिरे होने का कुछ गुमाँ भी दे

बना के बुत मुझे बीनाई का अज़ाब न दे

ये ही अज़ाब है क़िस्मत तो फिर ज़बाँ भी दे

ये काएनात का फैलाव तो बहुत कम है

जहाँ समा सके तन्हाई वो मकाँ भी दे

मैं अपने आप से कब तक किया करूँ बातें

मिरी ज़बाँ को भी कोई तर्जुमाँ भी दे

फ़लक को चांद-सितारे नवाज़ने वाले

मुझे चराग़ जलाने को साएबाँ भी दे

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