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GHAZAL

मेरी तेरी दूरियाँ हैं अब इबादत के ख़िलाफ़

मेरी तेरी दूरियाँ हैं अब इबादत के ख़िलाफ़

हर तरफ़ है फ़ौज-आराई मोहब्बत के ख़िलाफ़

हर्फ़-ए-सरमद ख़ून-ए-दारा के अलावा शहर में

कौन है जो सर उठाए बादशाहत के ख़िलाफ़

पहले जैसा ही दुखी है आज भी बूढ़ा कबीर

कोई आयत का मुख़ालिफ़ कोई मूरत के ख़िलाफ़

मैं भी चुप हूँ तू भी चुप है बात ये सच है मगर

हो रहा है जो भी वो तो है तबीअत के ख़िलाफ़

मुद्दतों के बा'द देखा था उसे अच्छा लगा

देर तक हँसता रहा वो अपनी आदत के ख़िलाफ़

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