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GHAZAL

मन बै-रागी तन अनूरागी क़दम क़दम दुश्वारी है

मन बै-रागी तन अनूरागी क़दम क़दम दुश्वारी है

जीवन जीना सहल न जानो बहुत बड़ी फ़नकारी है

औरों जैसे हो कर भी हम बा-इज़्ज़त हैं बस्ती में

कुछ लोगों का सीधा-पन है कुछ अपनी अय्यारी है

जब जब मौसम झूमा हम ने कपड़े फाड़े शोर किया

हर मौसम शाइस्ता रहना कोरी दुनिया-दारी है

ऐब नहीं है इस में कोई लाल-परी न फूल-कली

ये मत पूछो वो अच्छा है या अच्छी नादारी है

जो चेहरा देखा वो तोड़ा नगर नगर वीरान किए

पहले औरों से ना-ख़ुश थे अब ख़ुद से बे-ज़ारी है

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मन बै-रागी तन अनूरागी क़दम क़दम दुश्वारी है — Nida Fazli • ShayariPage