हुए सब के जहाँ में एक जब अपना जहाँ और हम

हुए सब के जहाँ में एक जब अपना जहाँ और हम

मुसलसल लड़ते रहते हैं ज़मीन-ओ-आसमाँ और हम


कभी आकाश के तारे ज़मीं पर बोलते भी थे

कभी ऐसा भी था जब साथ थीं तन्हाइयाँ और हम


सभी इक दूसरे के दुख में सुख में रोते हँसते थे

कभी थे एक घर के चाँद सूरज नद्दियाँ और हम


मोअर्रिख़ की क़लम के चंद लफ़्ज़ों सी है ये दुनिया

बदलती है हर इक युग में हमारी दास्ताँ और हम


दरख़्तों को हरा रखने के ज़िम्मेदार थे दोनों

जो सच पूछो बराबर के हैं मुजरिम बाग़बाँ और हम