GHAZAL•
आख़िर को वहशतों का सलीक़ा सा हो गया
आख़िर को वहशतों का सलीक़ा सा हो गया
चलते रहे तो रास्ता अपना सा हो गया
थी बे-दिली भी राह में दीवार की तरह
लहराई इक सदा कि दरीचा सा हो गया
थे आइनों में हम तो कोई देखता न था
आईना क्या हुए कि तमाशा सा हो गया
गुज़रा था कब इधर से उमीदों का ये हुजूम
इतने दिए जले कि अँधेरा सा हो गया
अच्छा बहुत लगा वो सितारों का टूटना
रात अपने जी का बोझ भी हल्का सा हो गया
यूँ दिल-दही को दिन भी हुआ रात भी हुई
गुज़री कहाँ है उम्र गुज़ारा सा हो गया
हर शाम इक मलाल की आदत सी हो गई
मिलने का इंतिज़ार भी मिलना सा हो गया