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GHAZAL

हम कुछ ऐसे तिरे दीदार में खो जाते हैं

हम कुछ ऐसे तिरे दीदार में खो जाते हैं

जैसे बच्चे भरे बाज़ार में खो जाते हैं

मुस्तक़िल जूझना यादों से बहुत मुश्किल है

रफ़्ता रफ़्ता सभी घर-बार में खो जाते हैं

इतना साँसों की रिफ़ाक़त पे भरोसा न करो

सब के सब मिट्टी के अम्बार में खो जाते हैं

मेरी ख़ुद्दारी ने एहसान किया है मुझ पर

वर्ना जो जाते हैं दरबार में खो जाते हैं

ढूँढने रोज़ निकलते हैं मसाइल हम को

रोज़ हम सुर्ख़ी-ए-अख़बार में खो जाते हैं

क्या क़यामत है कि सहराओं के रहने वाले

अपने घर के दर-ओ-दीवार में खो जाते हैं

कौन फिर ऐसे में तन्क़ीद करेगा तुझ पर

सब तिरे जुब्बा-ओ-दस्तार में खो जाते हैं

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