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GHAZAL

अलमारी से ख़त उस के पुराने निकल आए

अलमारी से ख़त उस के पुराने निकल आए

फिर से मिरे चेहरे पे ये दाने निकल आए

माँ बैठ के तकती थी जहाँ से मिरा रस्ता

मिट्टी के हटाते ही ख़ज़ाने निकल आए

मुमकिन है हमें गाँव भी पहचान न पाए

बचपन में ही हम घर से कमाने निकल आए

ऐ रेत के ज़र्रे तिरा एहसान बहुत है

आँखों को भिगोने के बहाने निकल आए

अब तेरे बुलाने से भी हम आ नहीं सकते

हम तुझ से बहुत आगे ज़माने निकल आए

एक ख़ौफ़ सा रहता है मिरे दिल में हमेशा

किस घर से तिरी याद न जाने निकल आए

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अलमारी से ख़त उस के पुराने निकल आए — Munawwar Rana • ShayariPage