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GHAZAL

अच्छा हुआ कि मेरा नशा भी उतर गया

अच्छा हुआ कि मेरा नशा भी उतर गया

तेरी कलाई से ये कड़ा भी उतर गया

वो मुतमइन बहुत है मिरा साथ छोड़ कर

मैं भी हूँ ख़ुश कि क़र्ज़ मिरा भी उतर गया

रुख़्सत का वक़्त है यूँही चेहरा खिला रहे

मैं टूट जाऊँगा जो ज़रा भी उतर गया

बेकस की आरज़ू में परेशाँ है ज़िंदगी

अब तो फ़सील-ए-जाँ से दिया भी उतर गया

रो-धो के वो भी हो गया ख़ामोश एक रोज़

दो-चार दिन में रंग-ए-हिना भी उतर गया

पानी में वो कशिश है कि अल्लाह की पनाह

रस्सी का हाथ थामे घड़ा भी उतर गया

वो मुफ़्लिसी के दिन भी गुज़ारे हैं मैं ने जब

चूल्हे से ख़ाली हाथ तवा भी उतर गया

सच बोलने में नश्शा कई बोतलों का था

बस ये हुआ कि मेरा गला भी उतर गया

पहले भी बे-लिबास थे इतने मगर न थे

अब जिस्म से लिबास-ए-हया भी उतर गया

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