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GHAZAL

तू दोस्त कसू का भी सितमगर न हुआ था

तू दोस्त कसू का भी सितमगर न हुआ था

औरों पे है वो ज़ुल्म कि मुझ पर न हुआ था

छोड़ा मह-ए-नख़शब की तरह दस्त-ए-क़ज़ा ने

ख़ुर्शीद हुनूज़ उस के बराबर न हुआ था

तौफ़ीक़ ब-अंदाज़ा-ए-हिम्मत है अज़ल से

आँखों में है वो क़तरा कि गौहर न हुआ था

जब तक कि न देखा था क़द-ए-यार का आलम

मैं मो'तक़िद-ए-फ़ित्ना-ए-महशर न हुआ था

मैं सादा-दिल आज़ुर्दगी-ए-यार से ख़ुश हूँ

या'नी सबक़-ए-शौक़ मुकर्रर न हुआ था

दरिया-ए-मआसी तुनुक-आबी से हुआ ख़ुश्क

मेरा सर-ए-दामन भी अभी तर न हुआ था

जारी थी 'असद' दाग़-ए-जिगर से मिरी तहसील

आतिश-कदा जागीर-ए-समुंदर न हुआ था

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तू दोस्त कसू का भी सितमगर न हुआ था — Mirza Ghalib • ShayariPage