रहा गर कोई ता-क़यामत सलामत

रहा गर कोई ता-क़यामत सलामत

फिर इक रोज़ मरना है हज़रत-सलामत


जिगर को मिरे इश्क़-ए-खूँ-नाबा-मशरब

लिखे है ख़ुदावंद-ए-नेमत सलामत


अलर्रग़्म-ए-दुश्मन शहीद-ए-वफ़ा हूँ

मुबारक मुबारक सलामत सलामत


नहीं गर सर-ओ-बर्ग-ए-इदराक-ए-मानी

तमाशा-ए-नैरंग-ए-सूरत सलामत


दो-आलम की हस्ती पे ख़त्त-ए-फ़ना खींच

दिल-ओ-दस्त-ए-अरबाब-ए-हिम्मत सलामत


नहीं गर ब-काम-ए-दिल-ए-ख़स्ता गर्दूं

जिगर-ख़ाई-ए-जोश-ए-हसरत सलामत


न औरों की सुनता न कहता हूँ अपनी

सर-ए-ख़स्ता दुश्वार-ए-वहशत सलामत


वफ़ूर-ए-बला है हुजूम-ए-वफ़ा है

सलामत मलामत मलामत सलामत


न फ़िक्र-ए-सलामत न बीम-ए-मलामत

ज़े-ख़ुद-रफ़्तगी-हा-ए-हैरत सलामत


रहे 'ग़ालिब'-ए-ख़स्ता मग़्लूब-ए-गर्दूं

ये क्या बे-नियाज़ी है हज़रत-सलामत