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GHAZAL

फिर इस अंदाज़ से बहार आई

फिर इस अंदाज़ से बहार आई

कि हुए मेहर-ओ-मह तमाशाई

देखो ऐ साकिनान-ए-ख़ित्ता-ए-ख़ाक

इस को कहते हैं आलम-आराई

कि ज़मीं हो गई है सर-ता-सर

रू-कश-ए-सतह-ए-चर्ख़-ए-मीनाई

सब्ज़ा को जब कहीं जगह न मिली

बन गया रू-ए-आब पर काई

सब्ज़ा ओ गुल के देखने के लिए

चश्म-ए-नर्गिस को दी है बीनाई

है हवा में शराब की तासीर

बादा-नोशी है बादा-पैमाई

क्यूँ न दुनिया को हो ख़ुशी 'ग़ालिब'

शाह-ए-दीं-दार ने शिफ़ा पाई

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फिर इस अंदाज़ से बहार आई — Mirza Ghalib • ShayariPage