नुक्ता-चीं है ग़म-ए-दिल उस को सुनाए न बने

नुक्ता-चीं है ग़म-ए-दिल उस को सुनाए न बने

क्या बने बात जहाँ बात बनाए न बने


मैं बुलाता तो हूँ उस को मगर ऐ जज़्बा-ए-दिल

उस पे बन जाए कुछ ऐसी कि बिन आए न बने


खेल समझा है कहीं छोड़ न दे भूल न जाए

काश यूँ भी हो कि बिन मेरे सताए न बने


ग़ैर फिरता है लिए यूँ तिरे ख़त को कि अगर

कोई पूछे कि ये क्या है तो छुपाए न बने


इस नज़ाकत का बुरा हो वो भले हैं तो क्या

हाथ आवें तो उन्हें हाथ लगाए न बने


कह सके कौन कि ये जल्वागरी किस की है

पर्दा छोड़ा है वो उस ने कि उठाए न बने


मौत की राह न देखूँ कि बिन आए न रहे

तुम को चाहूँ कि न आओ तो बुलाए न बने


बोझ वो सर से गिरा है कि उठाए न उठे

काम वो आन पड़ा है कि बनाए न बने


इश्क़ पर ज़ोर नहीं है ये वो आतिश 'ग़ालिब'

कि लगाए न लगे और बुझाए न बने