GHAZAL•
जिस ज़ख़्म की हो सकती हो तदबीर रफ़ू की
By Mirza Ghalib
जिस ज़ख़्म की हो सकती हो तदबीर रफ़ू की
लिख दीजियो या रब उसे क़िस्मत में अदू की
अच्छा है सर-अंगुश्त-ए-हिनाई का तसव्वुर
दिल में नज़र आती तो है इक बूँद लहू की
क्यूँ डरते हो उश्शाक़ की बे-हौसलगी से
याँ तो कोई सुनता नहीं फ़रियाद किसू की
दशने ने कभी मुँह न लगाया हो जिगर को
ख़ंजर ने कभी बात न पूछी हो गुलू की
सद-हैफ़ वो नाकाम कि इक उम्र से 'ग़ालिब'
हसरत में रहे एक बुत-ए-अरबदा-जू की
गो ज़िंदगी-ए-ज़ाहिद-ए-बे-चारा अबस है
इतना है कि रहती तो है तदबीर वज़ू की