हम से खुल जाओ ब-वक़्त-ए-मय-परस्ती एक दिन

हम से खुल जाओ ब-वक़्त-ए-मय-परस्ती एक दिन

वर्ना हम छेड़ेंगे रख कर उज़्र-ए-मस्ती एक दिन


ग़र्रा-ए-औज-ए-बिना-ए-आलम-ए-इमकाँ न हो

इस बुलंदी के नसीबों में है पस्ती एक दिन


क़र्ज़ की पीते थे मय लेकिन समझते थे कि हाँ

रंग लावेगी हमारी फ़ाक़ा-मस्ती एक दिन


नग़्मा-हा-ए-ग़म को भी ऐ दिल ग़नीमत जानिए

बे-सदा हो जाएगा ये साज़-ए-हस्ती एक दिन


धौल-धप्पा उस सरापा-नाज़ का शेवा नहीं

हम ही कर बैठे थे 'ग़ालिब' पेश-दस्ती एक दिन