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GHAZAL

हैराँ हूँ दिल को रोऊँ कि पीटूँ जिगर को मैं

हैराँ हूँ दिल को रोऊँ कि पीटूँ जिगर को मैं

मक़्दूर हो तो साथ रखूँ नौहागर को मैं

छोड़ा न रश्क ने कि तिरे घर का नाम लूँ

हर इक से पूछता हूँ कि जाऊँ किधर को मैं

जाना पड़ा रक़ीब के दर पर हज़ार बार

ऐ काश जानता न तिरे रह-गुज़र को मैं

है क्या जो कस के बाँधिए मेरी बला डरे

क्या जानता नहीं हूँ तुम्हारी कमर को मैं

लो वो भी कहते हैं कि ये बे-नंग-ओ-नाम है

ये जानता अगर तो लुटाता न घर को मैं

चलता हूँ थोड़ी दूर हर इक तेज़-रौ के साथ

पहचानता नहीं हूँ अभी राहबर को मैं

ख़्वाहिश को अहमक़ों ने परस्तिश दिया क़रार

क्या पूजता हूँ उस बुत-ए-बेदाद-गर को मैं

फिर बे-ख़ुदी में भूल गया राह-ए-कू-ए-यार

जाता वगर्ना एक दिन अपनी ख़बर को मैं

अपने पे कर रहा हूँ क़यास अहल-ए-दहर का

समझा हूँ दिल-पज़ीर मता-ए-हुनर को मैं

'ग़ालिब' ख़ुदा करे कि सवार-ए-समंद-नाज़

देखूँ अली बहादुर-ए-आली-गुहर को मैं

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हैराँ हूँ दिल को रोऊँ कि पीटूँ जिगर को मैं — Mirza Ghalib • ShayariPage