है बज़्म-ए-बुताँ में सुख़न आज़ुर्दा-लबों से

है बज़्म-ए-बुताँ में सुख़न आज़ुर्दा-लबों से

तंग आए हैं हम ऐसे ख़ुशामद-तलबों से


है दौर-ए-क़दह वज्ह-ए-परेशानी-ए-सहबा

यक-बार लगा दो ख़ुम-ए-मय मेरे लबों से


रिंदाना-ए-दर-ए-मय-कदा गुस्ताख़ हैं ज़ाहिद

ज़िन्हार न होना तरफ़ इन बे-अदबों से


बेदाद-ए-वफ़ा देख कि जाती रही आख़िर

हर-चंद मिरी जान को था रब्त लबों से


क्या पूछे है बर-ख़ुद ग़लती-हा-ए-अज़ीज़ाँ

ख़्वारी को भी इक आर है अआली-नसबों से


गो तुम को रज़ा-जूई-ए-अग़्यार है लेकिन

जाती है मुलाक़ात कब ऐसे सबबों से


मत पूछ 'असद' वअ'दा-ए-कम-फ़ुर्सती-ए-ज़ीस्त

दो दिन भी जो काटे तू क़यामत तअबों से