आईना क्यूँ न दूँ कि तमाशा कहें जिसे

आईना क्यूँ न दूँ कि तमाशा कहें जिसे

ऐसा कहाँ से लाऊँ कि तुझ सा कहें जिसे


हसरत ने ला रखा तिरी बज़्म-ए-ख़याल में

गुल-दस्ता-ए-निगाह सुवैदा कहें जिसे


फूँका है किस ने गोश-ए-मोहब्बत में ऐ ख़ुदा

अफ़्सून-ए-इंतिज़ार तमन्ना कहें जिसे


सर पर हुजूम-ए-दर्द-ए-ग़रीबी से डालिए

वो एक मुश्त-ए-ख़ाक कि सहरा कहें जिसे


है चश्म-ए-तर में हसरत-ए-दीदार से निहाँ

शौक़-ए-इनाँ गुसेख़्ता दरिया कहें जिसे


दरकार है शगुफ़्तन-ए-गुल-हा-ए-ऐश को

सुब्ह-ए-बहार पुम्बा-ए-मीना कहें जिसे


'ग़ालिब' बुरा न मान जो वाइ'ज़ बुरा कहे

ऐसा भी कोई है कि सब अच्छा कहें जिसे


या रब हमें तो ख़्वाब में भी मत दिखाइयो

ये महशर-ए-ख़याल कि दुनिया कहें जिसे


है इंतिज़ार से शरर आबाद रुस्तख़ेज़

मिज़्गान-ए-कोह-कन रग-ए-ख़ारा कहें जिसे


किस फ़ुर्सत-ए-विसाल पे है गुल को अंदलीब

ज़ख़्म-ए-फ़िराक़ ख़ंदा-ए-बे-जा कहें जिसे